Lekhika Ranchi

Add To collaction

मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि


भाग 6

दूसरे दिन मंदिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उतनी, शायद उम्र भर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शांत हो गया किंतु ऊंची जाति वाले सज्जन अब भी मंदिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मंदिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।
कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अंतर हो गया- भोग-विलास पर प्राण देने वाली रमणी आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रध्दा और उत्साह देख-देखकर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबुत कपड़े नहीं हैं, आंखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधो पांव नहीं पड़ते, पर भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं, मानो संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुख-दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रवाह में सुखदा भी बही जा रही थी। प्राय: मनस्वी, कर्मशील, महत्तवाकांक्षी प्राणियों की यही प्रकृति है। भोग करने वाले ही वीर होते हैं।
छोटे-बड़े सभी सुखदा को पूज्य समझ रहे थे, और उनकी यह भावना सुखदा में एक गर्वमय सेवा का भाव प्रदीप्त कर रही थी। कल उसने जो कुछ किया, वह एक प्रबल आवेश में किया। उसका फल क्या होगा, इसकी उसे जरा भी चिंता न थी। ऐसे अवसरों पर हानि-लाभ का विचार मन को दुर्बल बना देता है। आज वह जो कुछ कर रही थी, उसमें उसके मन का अनुराग था, सद्भाव था। उसे अब अपनी शक्ति और क्षमता का ज्ञान हो गया है, वह नशा हो गया है, जो अपनी सुध-बुध भूलकर सेवा-रत हो जाता है जैसे अपनी आत्मा को पा गई है।
अब सुखदा नगर की नेत्री है। नगर में जाति-हित के लिए जो काम होता है, सुखदा के हाथों उसका श्रीगणेश होता है। कोई उत्सव हो, कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट' का आंदोलन हो, सुखदा का उसमें प्रमुख भाग होता है। उसका जी चाहे या न चाहे, भक्त लोग उसे खींच ले जाते हैं। उसकी उपस्थिति किसी जलसे की सफलता की कुंजी है। आश्चर्य यह है कि वह बोलने भी लगी है, और उसके भाषण में चाहे भाषा चातुर्य न हो, पर सच्चे उद्गार अवश्य होते हैं। शहर में कई सार्वजनिक संस्थाएं हैं, कुछ सामाजिक, कुछ राजनैतिक, कुछ धार्मिक। सभी निर्जीव-सी पड़ी थीं। सुखदा के आते ही उनमें स्ठ्ठर्ति-सी आ गई है। मादक वस्तु-वहिष्कार-सभा बरसों से बेजान पड़ी थी। न कुछ प्रचार होता था न कोई संगठन। उसका मंत्री एक दिन सुखदा को खींच ले गया। दूसरे ही दिन उस सभा की एक भजन-मंडली बन गई, कई उपदेशक निकल आए, कई महिलाएं घर-घर प्रचार करने के लिए तैयार हो गईं और मुहल्ले-मुहल्ले पंचायतें बनने लगीं। एक नए जीवन की सृष्टि हो गई।

अब सुखदा को गरीबों की दुर्दशा के यथार्थ रूप देखने के अवसर मिलने लगे। अब तक इस विषय में उसे जो कुछ ज्ञान था, वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित था। आंखों से देखकर उसे ज्ञात हुआ, देखने और सुनने में बड़ा अंतर है। शहर की उन अंधेरी तंग गलियों में, जहां वायु और प्रकाश का कभी गुजर ही न होता था, जहां की जमीन ही नहीं, दीवारें भी सीली रहती थीं, जहां दुर्गन्धो के मारे नाक फटती थी, भारत की कमाऊ संतान रोग और दरिद्रता के पैरों तले-दबी हुई अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रही थीं। उसे अब मालूम हुआ कि अमरकान्त को धन और विलास से जो विरोध था, यह कितना यथार्थ था। उसे खुद अब उस मकान में रहते, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनते, अच्छे-अच्छे पदार्थ खाते ग्लानि होती थी। नौकरों से काम लेना उसने छोड़ दिया। अपनी धोती खुद छांटती थी, घर में झाडू खुद लगाती। वह जो आठ बजे सोकर उठती थी, अब मुंह-अंधेरे उठती, और घर के काम-काज में लग जाती। नैना तो अब उसकी पूजा-सी करती थी। लालाजी अपने घर की यह दशा देख-देख कुढ़ते थे, पर करते क्या- सुखदा के यहां तो अब नित्य दरबार-सा लगा रहता था। बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े विद्वान् आते रहते थे। इसलिए वह अब बहू से कुछ दबते थे। गृहस्थी के जंजाल से अब उनका मन ऊबने लगा था। जिस घर में उनसे किसी को सहानुभूति न हो, उस घर में कैसे अनुराग होता। जहां अपने विचारों का राज हो, वही अपना घर है। जो अपने विचारों को मानते हों, वही अपने सगे हैं। यह घर अब उनके लिए सराय-मात्र था। सुखदा या नैना, दोनों ही से कुछ कहते उन्हें डर लगता था।

एक दिन सुखदा ने नैना से कहा-बीबी, अब तो इस घर में रहने को जी नहीं चाहता। लोग कहते होंगे, आप तो महल में रहती हैं, और हमें उपदेश करती हैं। महीनों दौड़ते हो गए, सब कुछ करके हार गई, पर नशेबाजों पर कुछ भी असर न हुआ। हमारी बातों पर कोई कान ही नहीं देता। अधिकतर तो लोग अपनी मुसीबतों को भूल जाने ही के लिए नशे करते हैं वह हमारी क्यों सुनने लगे- हमारा असर तभी होगा, जब हम भी उन्हीं की तरह रहें।
कई दिनों से सर्दी चमक रही थी, कुछ वर्षा हो गई थी और पूस की ठंडी हवा आर्द्र होकर आकाश को कुहरे से आच्छन्न कर रही थी। कहीं-कहीं पाला भी पड़ गया था-मुन्ना बाहर जाकर खेलना चाहता था-वह अब लटपटाता हुआ चलने लगा था-पर नैना उसे ठंड के भय से रोके हुए थी। उसके सिर पर ऊनी कनटोप बंधती हुई बोली-यह तो ठीक है पर उनकी तरह रहना हमारे लिए साधय भी है, यह देखना है। मैं तो शायद एक ही महीने में मर जाऊं।
सुखदा ने जैसे मन-ही-मन निश्चय करके कहा-मैं तो सोच रही हूं, किसी गली में छोटा-सा घर लेकर रहूं। इसका कनटोप उतारकर छोड़ क्यों नहीं देतीं- बच्चों को गमलों के पौधो बनाने की जरूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झोंका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिए, जो धूप और वर्षा ओले और पाले किसी की परवाह नहीं करते।
नैना ने मुस्कराकर कहा-शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब बेचारे की सांसत करने चली हो। कहीं ठंड-वंड लग जाए, तो लेने के देने पड़ें।
'अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है?'
'क्यों, इसे अपने साथ उस छोटे-से घर में न रखोगी?'
'जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रखे। मैं कौन होती हूं ।'
'अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहतीं, तो तुम्हारे चरण धोधोकर पीते ॥'
सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा-मैं तो जो तब थी, वही अब भी हूं। जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था- वह मुझे विलासिनी समझते थे, पर मैं कभी विलास की लौंडी नहीं रही हां, मैं दादाजी को रूष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब अलग रहूंगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से प्रश्न उठाऊंगी कि वह बिलकुल आपत्ति न करेंगे। चलो, जरा डॉक्टर शान्तिकुमार को देख आवें। मुझे तो उधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।
नैना प्राय: एक बार रोज शान्तिकुमार को देख आती थी। हां, सुखदा से कुछ कहती न थी। वह अब उठने-बैठने लगे थे पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चल सकते थे। चोटें उन्होंने खाईं-छ: महीने से शय्या-सेवन कर रहे थे-और यश सुखदा ने लूटा। वह दु:ख उन्हें और भी घुलाए डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी अपनी मनोव्यथा नहीं कहीं पर यह कांटा खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती, और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छ: महीनों में सुखदा दो-तीन बार से ज्यादा उन्हें देखने न गई थी। वह भी अमरकान्त के मित्र थे और इस नाते से सुखदा को उन पर विशेष श्रध्दा न थी।
नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुका देवी ने कुछ दिनों से मोटर रख ली थी, पर वह रहती थी सुखदा ही की सवारी में। दोनों उस पर बैठकर चलीं मुन्ना भला क्यों अकेले रहने लगा था- नैना ने उसे भी ले लिया।
सुखदा ने कुछ दूर जाने के बाद कहा-यह सब अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूं तो दो-तीन आने में अपना निबाह कर सकती हूं।
नैना ने विनोद-भाव से कहा-पहले करके दिखा दो, तो मुझे विश्वास आए। मैं तो नहीं कर सकती।
'जब तक इस घर में रहूंगी, मैं भी न कर सकूंगी। इसलिए तो मैं अलग रहना चाहती हूं।'
'लेकिन साथ तो किसी को रखना ही पड़ेगा?'
'मैं कोई जरूरत नहीं समझती। इसी शहर में हजारों औरतें अकेली रहती हैं। फिर मेरे लिए क्या मुश्किल है- मेरी रक्षा करने वाले बहुत हैं। मैं खुद अपनी रक्षा कर सकती हूं। (मुस्कराकर) हां, खुद किसी पर मरने लगूं, तो दूसरी बात है।'
शान्तिकुमार सिर से पांव तक कंबल लपेटे, अंगठी जलाए, कुर्सी पर बैठे एक स्वास्थ्य-संबंधी पुस्तक पढ़ रहे थे। वह कैसे जल्द-से-जल्द भले-चंगे हो जायं, आजकल उन्हें यही चिंता रहती थी। दोनों रमणियों के आने का समाचार पाते ही किताब रख दी और कंबल उतारकर रख दिया। अंगीठी भी हटाना चाहते थे पर इसका अवसर न मिला। दोनों ज्योंही कमरे में आईं, उन्हें प्रणाम करके कुर्सियों पर बैठने का इशारा करते हुए बोले-मुझे आप लोगों पर ईर्ष्या। हो रही है। आप इस शीत में घूम-फिर रही हैं और मैं अंगीठी जलाए पड़ा हूं। करूं क्या, उठा ही नहीं जाता। जिंदगी के छ: महीने मानो कट गए, बल्कि आधी उम्र कहिए। मैं अच्छा होकर भी आधा ही रहूंगा। कितनी लज्जा आती है कि देवियां बाहर निकलकर काम करें और मैं कोठरी में बंद पड़ा रहूं।
सुखदा ने जैसे आंसू पोंछते हुए कहा-आपने इस नगर में जितनी जागृति फैला दी, उस हिसाब से तो आपकी उम्र चौगुनी हो गई। मुझे तो बैठे-बैठाए यश मिल गया।
शान्तिकुमार के पीले मुख पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी। सुखदा के मुंह से यह सनद पाकर, मानो उनका जीवन सफल हो गया। बोले-यह आपकी उदारता है। आपने जो कुछ कर दिखाया और कर रही हैं, वह आप ही कर सकती हैं। अमरकान्त आएंगे तो उन्हें मालूम होगा कि अब उनके लिए यहां स्थान नहीं है। यह साल भर में जो कुछ हो गया इसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। यहां सेवाश्रम में लड़कों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। अगर यही हाल रहा, तो कोई दूसरी जगह लेनी पड़ेगी। अध्यातपक कहां से आएंगे, कह नहीं सकता। सभ्य समाज की यह उदासीनता देखकर मुझे तो कभी-कभी बड़ी चिंता होने लगती है। जिसे देखिए स्वार्थ में मगन है। जो जितना ही महान है उसका स्वार्थ भी उतना ही महान है। यूरोप की डेढ़ सौ साल तक उपासना करके हमें यही वरदान मिला है। लेकिन यह सब होने पर भी हमारा भविष्य उज्ज्वल है। मुझे इसमें संदेह नहीं। भारत की आत्मा अभी जीवित है और मुझे विश्वास है कि वह समय आने में देर नहीं है, जब हम सेवा और त्याग के पुराने आदर्श पर लौट आएंगे। तब धन हमारे जीवन का ध्येरय न होगा। तब हमारा मूल्य धन के कांटे पर न तौला जाएगा।
मुन्ने ने कुर्सी पर चढ़कर मेज पर से दवात उठा ली थी और अपने मुंह में कालिमा पोत-पोतकर खुश हो रहा था। नैना ने दौड़कर उसके हाथ से दवात छीन ली और एक धौल जमा दिया। शान्तिकुमार ने उठने की असफल चेष्टा करके कहा-क्यों मारती हो नैना, देखो तो कितना महान् पुरुष है, जो अपने मुंह में कालिमा पोतकर भी प्रसन्न होता है, नहीं तो हम अपनी कालिमाओं को सात परदों के अन्दर छिपाते है ं।
नैना ने बालक को उनकी गोद में देते हुए कहा-तो लीजिए, इस महान् पुरुष को आप ही। इसके मारे चैन से बैठना मुश्किल है।
शान्तिकुमार ने बालक को छाती से लगा लिया। उस गर्म और गुदगुदे स्पर्श में उनकी आत्मा ने जिस परितृप्ति और माधुर्य का अनुभव किया, वह उनके जीवन में बिलकुल नया था। अमरकान्त से उन्हें जितना स्नेह था, वह जैसे इस छोटे से रूप में सिमटकर और ठोस और भारी हो गया था। अमर की याद करके उनकी आंखें सजल हो गईं। अमर ने अपने को कितने अतुल आनंद से वंचित कर रखा है, इसका अनुमान करके वह जैसे दब गए। आज उन्हें स्वयं अपने जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ। जिन कामनाओं का वह अपने विचार में संपूर्णत: दमन कर चुके थे वह राख में छिपी हुई चिंगारियों की भांति सजीव हो गईं।
मुन्ने ने हाथों की स्याही शान्तिकुमार के मुख में पोतकर नीचे उतरने का आग्रह किया, मानो इसीलिए यह उनकी गोद में गया था। नैना ने हंसकर कहा-जरा अपना मुंह तो देखिए, डॉक्टर साहब इस महान् पुरुष ने आपके साथ होली खेल डाली बदमाश है।
सुखदा भी हंसी को न रोक सकी। शान्तिकुमार ने शीशे में मुंह देखा, तो वह भी जोर से हंसे। यह कालिमा का टीका उन्हें इस समय यश के तिलक से भी कहीं उल्लासमय जान पड़ा।
सहसा सुखदा ने पूछा-आपने शादी क्यों नहीं की, डॉक्टर साहब-

   1
0 Comments